Sunday 9 January, 2011

पेट की गरमी पसर गई जिस्म पर




मेरठ आए अब सवा महीने बीत चुके हैं। इतने दिनों में जिस चीज को लेकर सबसे अधिक मेहनत करनी पड़ी, वह है लोगों और इलाकों के नाम याद रखना। खास तौर पर साथियों के उपनाम जाखड़, धनकड़ के नाम जुबान पर मुशि्कल से चढ़े। ऐसे ही रास्तों को भी समझने में अधिक सचेत रहना पड़ा। खैर नगर, लिसाड़ी गेट, मोदीपुरम, बुढ़ाना गेट, कबाड़ी बाजार और ऐसे ही कई नाम ऐसे हैं जो अब जाकर जेहन का हिस्सा बन पाए। एक बार तो अपने सीनियर फोटोग्राफर साथी चीकू ( उन्हें लोग इसी नाम से जानते हैं। वैसे उनका असली नाम अनुज कौशिक मुझे अधिक प्रभावित करता है।) से अनुरोध करना पड़ा कि वे मुझे सूचनाएं देते वक्त थोड़ा रुक रुक कर बोलें ताकि मैं वही समझ सकूं जो वह मुझे बताना चाहते हैं। उन्होंने पहले तो मेरी बात पर ठहाका लगाया और फिर मेरी मजबूरी को समझते हुए तेज बोलने की अपनी मूल आदत में थोड़ा बदलाव भी किया। अब ठीक है। वरिष्ठ साथी राजेंद्र सिंह के साथ शहर की कई गलियां घूमीं। कहीं चाट खाई तो कहीं फ्रूट चाट। रोड साइड जायका लेने की मेरी धुन को राजेंद्र सर ने पकड़ लिया था। उनके जाने के बाद मैंने एक-एक गली को अपनी ओर से रिकॉल करने की कोशिश की। किसी भी गली में यह सोच कर घुस गया कि कहीं तो निकलेगी। इसने मेरा आत्मिविश्वास थोड़ा जल्दी बढ़ा दिया।
शुक्रवार को घंटाघर से होकर वैली बाजार में घुसा। ठंड बेकाबू हो रही थी, इसलिए इनर लेना था। लोगों ने बताया वैली बाजार में मिल जाएगा। बात ठीक भी थी। एक अच्छी सी दुकान देख कर घुसा। सारे ब्रांड देखे और ग्राहकों से जाने क्यों जले-भुने बैठे दुकानदार का प्रवचन सुनते हुए इनर पसंद करके बाहर निकल आया। तंग रास्तों से वैली बाजार पहुंच तो गया था लेकिन वापस उसी ओर से लौटने की हिम्मत नहीं हुई। एक राहगीर से दिल्ली रोड का रास्ता पूछा। उसने बताया कि रास्ता शारदा रोड होते हुए सीधे दिल्ली रोड ही पहुंचेगा। यह मेरे लिए राहत की बात थी। वैली बाजार खत्म होते ही रास्ता और तंग हो गया। सामने से आने वाले हर राहगीर की निगाहें ऊपर की ओर देख पहले तो कुछ समझ नहीं आया पर जब मेरी निगाह भी ऊपर गई तो मामला साफ था। मैं अनजाने ही कबाड़ी बाजार में था। कबाड़ी बाजार यानी जिस्म की मंडी। एक-दो नहीं तकरीबन सौ लड़कियां छोटे-दड़बेनुमा कमरों की मुंडेर पर टिकी दिखीं। हैरत यह कि नीचे की दुकानों पर भरी-पूरी भीड़ थी। यह वाराणसी की दाल मंडी और इलाहाबाद के मीरगंज से कहीं अलग दृश्य था। आमतौर पर ऐसी गलियों से स्थानीय व्यापारियों और दुकानदारों के अलावा उनके ग्राहकों का ही सरोकार होता है लेकिन मेरठ में ऐसा नहीं है। यहां सड़क के दोनों ओर शहर की बड़ी और प्रतिष्ठित दुकानें भी हैं। इस सड़क से स्कूली छात्र-छात्राओं, घरेलू महिलाओं का वैसे ही आना जाना होता है, जैसे शहर के किसी और रास्ते से। शुक्रवार को पैंठ (स्थानीय मेला नुमा बाजार) भी लगता है।
ठंड बढ़ गई थी, इसलिए मैं इनर लेने गया था। जैकेट और मफलर पहले ही पहन रखे थे। रास्ते पर शायद ही कोई ऐसा था जिसका शरीर पूरी तरह से गर्म कपड़ों से ढका न हो लेकिन इस हाड़ कंपाने वाली सरदी में भी खिड़िकयों पर टंगी लड़िकयों के जिस्म अधनंगे थे। स्वेटर तो दूर जिस्म के बाजार में अपनी बोली के लिए खड़ी इन लड़िकयों ने बांह तक नहीं ढके थे। उनके स्लीवलेस ब्लाउज, गहरे कट वाले टी शर्ट और स्कर्ट्स उनकी मजबूरी की कहानी बयां कर रहे थे। ठंड के कारण सड़कों पर भीड़ कम थी। भीषण शीतलहर में शायद ग्राहक भी कम हो गए होंगे। सैकड़ों लड़कियों में शायद कुछ ही किस्मत में इतने ग्राहक आते होते होंगे जो दो जून की रोटी भर को पर्याप्त पैसा अदा करते होंगे। अधेड़ होचुकी औरतों की गाढ़ी लिपिस्टिक और करीने से सजाए गए बाल शायद उनकी वेदना जैसे ही अधिक गहरे थे। शायद इन लड़िकयों के पेट की भूख उनके जिस्म पर पसर गई है। दोनों वक्त चूल्हें गर्म हो सकें, इसलिए उनके जिस्म को ठंड नहीं लगती। एक दो बार और भी कबाड़ी बाजार से गुजरना हुआ। पारा चाहे 10 डिग्री रहा हो या फिर 3.5। लड़िकयां जस की तस तब भी वैसे ही अलगनी पर टंगी दिखीं , अपने उतारे जाने के इंतजार में।

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खुद को समझने की कोशिश लंबे समय से कर रहा हूं। जितना जानता हूं उतने की बात करूं तो स्कूल जाने के दौरान ही शब्दों को लय देने का फितूर साथ हो चला। बाद में किसी दौर में पत्रकारिता का जुनून सवार हुआ तो परिवार की भौंहे तन गईं फिर भी १५ साल से अपने इस पसंदीदा प्रोफेशन में बना (और बचा हुआ) हूं, यही बहुत है। अच्छे और ईमानदार लोग पसंद हैं। वैसा ही रहने की कोशिश भी करता हूं। ऐसा बना रहे, यही कामना है।