kaha-suna
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Monday, 13 June 2011
टीम के बगैर कोई भी उल्लास संभव नहीं। उल्लास इस वर्ष मां तुझे प्रणाम की पहली कड़ी थी, इसलिए हम सब की दिल की धड़कनें तेज थीं। सारा ध्यान इस बात पर था कि हम पिछले साल के मुकाबले बड़ी लाइन खींचें और हमें गहरा संतोष है कि हम इसमें कामयाब हुए। जाहिर तौर पर इस जीत का श्रेय हमारे मुखिया संपादक श्री सूर्यकांत द्विवेदी जी और पूरी टीम को है। खास तौर पर महिला मंडल रजनी, शालू, आरती, पारुल, वंदना, सुचित्रा और जिनके भी नाम मुझे पता नहीं है, उनके बगैर यह कार्यक्रम सफल नहीं हो पाता। एक विशेष धन्यवाद भाई शादाब को, जो हर वक्त मुझे अपने कंधे से कंधा मिलाए खड़े दिखाई देते हैं। चाहे नए लोगों से परिचय कराना हो या किसी जानकारी में संशोधन, वह बिना हिचक मुझे करेक्ट करते रहते हैं। और हां, ये उनकी धमकी का ही असर है कि छायाकार साथी सुनील और चंद्रकांत हमारी भी तस्वीरें गाहे-बगाहे खीच ले रहे हैं। कम से कम ब्लॉग के लिए कुछ तो मिला।
10 जून को आरजी पीजी कॉलेज में आयोजित कार्यक्रम उल्लास-आजादी का अमर उजाला की बेमिसाल कोशिश है। इसमें डेढ़ दर्जन से अधिक संस्थाओं ने अपनी प्रस्तुति से देश प्रेम की अनोखी छंटा बिखेरी। आधी दुनियां ने साबित किया कि वे किसी से पीछे नहीं है। चाहे मामला घर संभालने का हो या फिर राष्ट्रभक्ति का, वे सबसे आगे हैं। कुछ तस्वीरें खास आपके लिए.....
मां तुझे प्रणाम
10 मई से 15 अगस्त के बीच होने वाला अमर उजाला का कार्यक्रम मां तुझे प्रणाम अपने आप में अनूठा है। हमारे एमडी सर अतुल माहेश्वरी जी कल्पना की थी कि आजादी के जश्न को सरकारी फाइलों और स्कूली बच्चों के कंधे से उतार कर जन जन तक पहुंचाया जाए। इसी सिलसिले में 2022 में कानपुर से शुरू हुआ मां तुझे प्रणाम पिछले तीन सालों से मेरठ की धड़कन बना हुआ है। यहां आम लोगों को इस कार्यक्रम का इंतजार रहता है। इस बार हम इस कार्यक्रम की पहली कड़ी उल्लास 10 जून को मना चुके हैं। महिला संगठनों के इस कार्यक्रम को लेकर हम सशंकित थे कि क्या आरजी डिग्री कॉलेज का पूरा ऑडिटोरियम भर पाएगा लेकिन कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही न केवल पूरा हाल भरा बल्कि बालकोनी में भी तिल रखने की जगह नहीं थी। शहर के लोगों का प्यार ही हमारा साहस है। हम 25 जून को अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरा कर रहे हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक कार्यक्रम के मुख्य अतिथि होंगे जबकि नवाज देवबंदी, कुंवर बेचैन और वसीम बरेलवी जैसे बड़े नामों के बीच देश प्रेम की रचनाएं फूलों सी बिखरेंगी। मां तुझे प्रणाम की तैयारी और उल्लास की कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूं।
चीनी कम
वक्त कहां गुजर जाता है पता ही नहीं चलता। कभी लगता है दबोच लूं अपना सारा कल, अपने दोस्त, अपनी जिंदगी, मुट्ठी में। कुछ भी न छूटे। उनकी हाजिरी की गरमी महसूस कर सकूं अपनी हथेलियों के बीच लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठा देखता हूं अपनों को बिछड़ते। आदमकद से धीरे-धीरे छोटा होते और फिर दूर स्मृतियों में खोते। मेरठ में सब कुछ अच्छा है, ताजा है, काम की गर्मजोशी भी है पर कुछ कमी है जो अखरती है। शायद थोड़ी चीनी कम, शायद थोड़ा नमक कम।
Sunday, 9 January 2011
पेट की गरमी पसर गई जिस्म पर
मेरठ आए अब सवा महीने बीत चुके हैं। इतने दिनों में जिस चीज को लेकर सबसे अधिक मेहनत करनी पड़ी, वह है लोगों और इलाकों के नाम याद रखना। खास तौर पर साथियों के उपनाम जाखड़, धनकड़ के नाम जुबान पर मुशि्कल से चढ़े। ऐसे ही रास्तों को भी समझने में अधिक सचेत रहना पड़ा। खैर नगर, लिसाड़ी गेट, मोदीपुरम, बुढ़ाना गेट, कबाड़ी बाजार और ऐसे ही कई नाम ऐसे हैं जो अब जाकर जेहन का हिस्सा बन पाए। एक बार तो अपने सीनियर फोटोग्राफर साथी चीकू ( उन्हें लोग इसी नाम से जानते हैं। वैसे उनका असली नाम अनुज कौशिक मुझे अधिक प्रभावित करता है।) से अनुरोध करना पड़ा कि वे मुझे सूचनाएं देते वक्त थोड़ा रुक रुक कर बोलें ताकि मैं वही समझ सकूं जो वह मुझे बताना चाहते हैं। उन्होंने पहले तो मेरी बात पर ठहाका लगाया और फिर मेरी मजबूरी को समझते हुए तेज बोलने की अपनी मूल आदत में थोड़ा बदलाव भी किया। अब ठीक है। वरिष्ठ साथी राजेंद्र सिंह के साथ शहर की कई गलियां घूमीं। कहीं चाट खाई तो कहीं फ्रूट चाट। रोड साइड जायका लेने की मेरी धुन को राजेंद्र सर ने पकड़ लिया था। उनके जाने के बाद मैंने एक-एक गली को अपनी ओर से रिकॉल करने की कोशिश की। किसी भी गली में यह सोच कर घुस गया कि कहीं तो निकलेगी। इसने मेरा आत्मिविश्वास थोड़ा जल्दी बढ़ा दिया।
शुक्रवार को घंटाघर से होकर वैली बाजार में घुसा। ठंड बेकाबू हो रही थी, इसलिए इनर लेना था। लोगों ने बताया वैली बाजार में मिल जाएगा। बात ठीक भी थी। एक अच्छी सी दुकान देख कर घुसा। सारे ब्रांड देखे और ग्राहकों से जाने क्यों जले-भुने बैठे दुकानदार का प्रवचन सुनते हुए इनर पसंद करके बाहर निकल आया। तंग रास्तों से वैली बाजार पहुंच तो गया था लेकिन वापस उसी ओर से लौटने की हिम्मत नहीं हुई। एक राहगीर से दिल्ली रोड का रास्ता पूछा। उसने बताया कि रास्ता शारदा रोड होते हुए सीधे दिल्ली रोड ही पहुंचेगा। यह मेरे लिए राहत की बात थी। वैली बाजार खत्म होते ही रास्ता और तंग हो गया। सामने से आने वाले हर राहगीर की निगाहें ऊपर की ओर देख पहले तो कुछ समझ नहीं आया पर जब मेरी निगाह भी ऊपर गई तो मामला साफ था। मैं अनजाने ही कबाड़ी बाजार में था। कबाड़ी बाजार यानी जिस्म की मंडी। एक-दो नहीं तकरीबन सौ लड़कियां छोटे-दड़बेनुमा कमरों की मुंडेर पर टिकी दिखीं। हैरत यह कि नीचे की दुकानों पर भरी-पूरी भीड़ थी। यह वाराणसी की दाल मंडी और इलाहाबाद के मीरगंज से कहीं अलग दृश्य था। आमतौर पर ऐसी गलियों से स्थानीय व्यापारियों और दुकानदारों के अलावा उनके ग्राहकों का ही सरोकार होता है लेकिन मेरठ में ऐसा नहीं है। यहां सड़क के दोनों ओर शहर की बड़ी और प्रतिष्ठित दुकानें भी हैं। इस सड़क से स्कूली छात्र-छात्राओं, घरेलू महिलाओं का वैसे ही आना जाना होता है, जैसे शहर के किसी और रास्ते से। शुक्रवार को पैंठ (स्थानीय मेला नुमा बाजार) भी लगता है।
ठंड बढ़ गई थी, इसलिए मैं इनर लेने गया था। जैकेट और मफलर पहले ही पहन रखे थे। रास्ते पर शायद ही कोई ऐसा था जिसका शरीर पूरी तरह से गर्म कपड़ों से ढका न हो लेकिन इस हाड़ कंपाने वाली सरदी में भी खिड़िकयों पर टंगी लड़िकयों के जिस्म अधनंगे थे। स्वेटर तो दूर जिस्म के बाजार में अपनी बोली के लिए खड़ी इन लड़िकयों ने बांह तक नहीं ढके थे। उनके स्लीवलेस ब्लाउज, गहरे कट वाले टी शर्ट और स्कर्ट्स उनकी मजबूरी की कहानी बयां कर रहे थे। ठंड के कारण सड़कों पर भीड़ कम थी। भीषण शीतलहर में शायद ग्राहक भी कम हो गए होंगे। सैकड़ों लड़कियों में शायद कुछ ही किस्मत में इतने ग्राहक आते होते होंगे जो दो जून की रोटी भर को पर्याप्त पैसा अदा करते होंगे। अधेड़ होचुकी औरतों की गाढ़ी लिपिस्टिक और करीने से सजाए गए बाल शायद उनकी वेदना जैसे ही अधिक गहरे थे। शायद इन लड़िकयों के पेट की भूख उनके जिस्म पर पसर गई है। दोनों वक्त चूल्हें गर्म हो सकें, इसलिए उनके जिस्म को ठंड नहीं लगती। एक दो बार और भी कबाड़ी बाजार से गुजरना हुआ। पारा चाहे 10 डिग्री रहा हो या फिर 3.5। लड़िकयां जस की तस तब भी वैसे ही अलगनी पर टंगी दिखीं , अपने उतारे जाने के इंतजार में।
Saturday, 4 December 2010
alvida allahabad
allahabad se mujhe pyar hai. bina shart. 1994 ke shuru ma jab bade sapne le kar aya tha tab bhi aur ab jab apne sare sapne apni hi potli me samet kar allahabad chod raha hu tab bhi. jab dobara allahabad aya tha to yaha bachpan ke yadee kheenchti thee, ab ja raha hu to utsah, umang aur khas taur par allahabad ka sikhaya hua yad aa raha hai.
Monday, 13 September 2010
वो समझ बैठे कि हम भी फरेब करते है.
उन सभी लोगो को धन्यवाद जो मेरे साथ मेरी ताकत बन कर खड़े है न कि मेरे लिए श्यापा कर रहे हैं. इसी हफ्ते ऑफिस जाते समय कुछ पंक्तिया होठो पर आयीं, आप सबके लिए मेरी ओर से .....
नज़र को फेर कर वो दिल पे वार करते हैं
और एक हम है कि उनको सलाम करते हैं.
उनके पहलु में मेरे जख्म सारे सूख गए
वो समझ बैठे कि हम भी फरेब करते है.
काट के पंख मेरे, देखो वो कैसा झूम उठा
ये अलग बात है कि हम हौसलों से उड़ते है.
उनके होने कि खबर मुझको ऐसे होती है
चाँद तारे भी जब इशारो से बात करते है.
नींद भी आँखों से कुछ रूठी हुई सी लगती है
दिन बुरे दोस्त, क्या इसी को कहते है.
प्यार में हमने निभाईं हैं, इस तरह रस्में
चरागे दिल कि रोशनी में, उनको पढ़ते हैं.
नज़र को फेर कर वो दिल पे वार करते हैं
और एक हम है कि उनको सलाम करते हैं.
उनके पहलु में मेरे जख्म सारे सूख गए
वो समझ बैठे कि हम भी फरेब करते है.
काट के पंख मेरे, देखो वो कैसा झूम उठा
ये अलग बात है कि हम हौसलों से उड़ते है.
उनके होने कि खबर मुझको ऐसे होती है
चाँद तारे भी जब इशारो से बात करते है.
नींद भी आँखों से कुछ रूठी हुई सी लगती है
दिन बुरे दोस्त, क्या इसी को कहते है.
प्यार में हमने निभाईं हैं, इस तरह रस्में
चरागे दिल कि रोशनी में, उनको पढ़ते हैं.
Saturday, 11 September 2010
कहा सुना माफ़
२००९ में मुम्बई में जिस फूलों वाली लड़की ने मुझे कर्ज में डाला था उसने मुझे ब्लॉग पर भी कर्ज से मुक्त नहीं होने दिया. पूरे ८ महीने बीत गए और मै लाख चाह कर भी फूलों वाली लड़की की दास्ताँ नहीं कह सका. इस दैरान समंदर में जाने कितना पानी बह गया इसलिए जी करता है कि उसका कर्जदार बना रहूं. क्या पता अपनी इस गलती से जीवन का कोई और नया सबक हासिल कर सकूं. अख़बार में पूरे १५ साल रिपोर्टिंग करने के बाद अपनी मर्जी से अब डेस्क का काम करने का निर्णय लिया है. ये सोच कर कि जिस भूपेश को कही पीछे छोड़ आया था, शायद उससे कही मुलाकात हो जाये. इसलिए कहा सुना माफ़ करियेगा. उम्मीदों का नया सफ़र शुरू कर रहा हूँ. इस उम्मीद पे कि कम से कम अपनों कि उम्मीद पे खरा उतर सकू.
Monday, 28 December 2009
Sunday, 27 December 2009
हेलो मुंबई...
आज मुंबई में दूसरी सुबह है। हम अभी तय कर रहे हैं कि एस्सेल वल्डॆ चलें या मुरुड. मैं मुरुड जाना चाहता था क्योंकि यह वही रास्ता था जिस रास्ते कासिद से होकर २६ नवंबर के कातिल मुंबई आए थे। मैं भी इस कमजोर कड़ी को देखना चाहता था। हालांकि अंत में यही तय हुआ कि एस्सेल वल्डॆ ही चलें क्योंकि बेटू उसे लेकर काफी रोमांचित हैं। ये पोस्ट सिफॆ आपको अपडेट करने के लिए डाल रहा हूं। डिटेल पोस्ट इलाहाबाद लौट कर करूंगा। सोचा तो है कि मुंबई पर पूरी सिरीज पोस्ट करूं। कर पाया तो मुझे भी मजा आएगा। वैसे कल हम मुंबई साउथ की लगभग सभी शानदार जगहों को आंखों के जरिए दिल में बसा चुके हैं। शाहरुख का घर मन्नत, उसके सामने स्थित शानदार बैंड स्टैंड, चौपाटी, एलिफेंटा, फैशन स्टीट, हाजी अली, मैरीन डाइव, सी लिंक, सुखराम फूड प्लाजा जैसे कई और नाम हैं जिन्हें डिटेल पोस्ट में शेयर करूंगा। तब तक मुंबई का एक और शानदार नजारा आपके लिए।
गुड नाइट मुंबई...
माफ कीजिएगा, इलाहाबाद से निकला तो सोचा था कि मोबाइल के जरिए आप से संपकॆ बनाए रखूंगा लेकिन उसकी नौबत ही नहीं आई। २४ दिसंबर को इलाहाबाद से सिरडी के लिए रवाना हुआ तो कुछ किलोमीटर के बाद ही खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में रहने वाली एयरटेल और वोडाफोन कंपनियों के नेटवकॆ्स ने साथ छोड़ दिया।भला हो अंबानी बंधुओं का कि फैमिली में तमाम ब्रेक्स के बाद भी रिलायंस का नेटवकॆ बिना ब्रेक्स के रहा। आज पूरे दिन साथॆक घुमक्कड़ी के बाद मुंबई को नए नजरिए से देखने का मौका मिला। रात के करीब १२ बजे हम वापस घर पहुंचे। थकी हुई मलिल्काए आला और साहबजादे कुछ ही मिनटों में सो गए। मुंबई अपनी गति से चल रही है। मैं भी काफी थक चुका हूं लेकिन आशू का लैपटाप देखकर दिल हुआ कि मुंबई को कम से कम गुड नाइट जरूर कर लूं। इलाहाबाद लौटते ही कुछ नए अनुभव सिरडी और मुंबई को लेकर आपके सामने हाजिर होउंगा। तब तक के लिए गुड नाइट मुंबई...................
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- BHUPESH
- खुद को समझने की कोशिश लंबे समय से कर रहा हूं। जितना जानता हूं उतने की बात करूं तो स्कूल जाने के दौरान ही शब्दों को लय देने का फितूर साथ हो चला। बाद में किसी दौर में पत्रकारिता का जुनून सवार हुआ तो परिवार की भौंहे तन गईं फिर भी १५ साल से अपने इस पसंदीदा प्रोफेशन में बना (और बचा हुआ) हूं, यही बहुत है। अच्छे और ईमानदार लोग पसंद हैं। वैसा ही रहने की कोशिश भी करता हूं। ऐसा बना रहे, यही कामना है।