Friday, 4 September 2009

पेट के खातिर

मुझे allahabad में बिताया अपना bachpan याद है। ऐसे najare पुलिस लाइन में akksar dikhte थे। भाई sanjai banudha की इस shandar taswee में shayd apko भी जीवन की jijivisha का नया चेहरा दिखायी दे।

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खुद को समझने की कोशिश लंबे समय से कर रहा हूं। जितना जानता हूं उतने की बात करूं तो स्कूल जाने के दौरान ही शब्दों को लय देने का फितूर साथ हो चला। बाद में किसी दौर में पत्रकारिता का जुनून सवार हुआ तो परिवार की भौंहे तन गईं फिर भी १५ साल से अपने इस पसंदीदा प्रोफेशन में बना (और बचा हुआ) हूं, यही बहुत है। अच्छे और ईमानदार लोग पसंद हैं। वैसा ही रहने की कोशिश भी करता हूं। ऐसा बना रहे, यही कामना है।