Monday 28 December, 2009

Sunday 27 December, 2009

हेलो मुंबई...


आज मुंबई में दूसरी सुबह है। हम अभी तय कर रहे हैं कि एस्सेल वल्डॆ चलें या मुरुड. मैं मुरुड जाना चाहता था क्योंकि यह वही रास्ता था जिस रास्ते कासिद से होकर २६ नवंबर के कातिल मुंबई आए थे। मैं भी इस कमजोर कड़ी को देखना चाहता था। हालांकि अंत में यही तय हुआ कि एस्सेल वल्डॆ ही चलें क्योंकि बेटू उसे लेकर काफी रोमांचित हैं। ये पोस्ट सिफॆ आपको अपडेट करने के लिए डाल रहा हूं। डिटेल पोस्ट इलाहाबाद लौट कर करूंगा। सोचा तो है कि मुंबई पर पूरी सिरीज पोस्ट करूं। कर पाया तो मुझे भी मजा आएगा। वैसे कल हम मुंबई साउथ की लगभग सभी शानदार जगहों को आंखों के जरिए दिल में बसा चुके हैं। शाहरुख का घर मन्नत, उसके सामने स्थित शानदार बैंड स्टैंड, चौपाटी, एलिफेंटा, फैशन स्टीट, हाजी अली, मैरीन डाइव, सी लिंक, सुखराम फूड प्लाजा जैसे कई और नाम हैं जिन्हें डिटेल पोस्ट में शेयर करूंगा। तब तक मुंबई का एक और शानदार नजारा आपके लिए।

गुड नाइट मुंबई...


माफ कीजिएगा, इलाहाबाद से निकला तो सोचा था कि मोबाइल के जरिए आप से संपकॆ बनाए रखूंगा लेकिन उसकी नौबत ही नहीं आई। २४ दिसंबर को इलाहाबाद से सिरडी के लिए रवाना हुआ तो कुछ किलोमीटर के बाद ही खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में रहने वाली एयरटेल और वोडाफोन कंपनियों के नेटवकॆ्स ने साथ छोड़ दिया।भला हो अंबानी बंधुओं का कि फैमिली में तमाम ब्रेक्स के बाद भी रिलायंस का नेटवकॆ बिना ब्रेक्स के रहा। आज पूरे दिन साथॆक घुमक्कड़ी के बाद मुंबई को नए नजरिए से देखने का मौका मिला। रात के करीब १२ बजे हम वापस घर पहुंचे। थकी हुई मलिल्काए आला और साहबजादे कुछ ही मिनटों में सो गए। मुंबई अपनी गति से चल रही है। मैं भी काफी थक चुका हूं लेकिन आशू का लैपटाप देखकर दिल हुआ कि मुंबई को कम से कम गुड नाइट जरूर कर लूं। इलाहाबाद लौटते ही कुछ नए अनुभव सिरडी और मुंबई को लेकर आपके सामने हाजिर होउंगा। तब तक के लिए गुड नाइट मुंबई...................

Wednesday 23 December, 2009

डॉ.अजय ke 'चेहरे'




kuch बेहद शांत, kuch डरे-सहमे, kuch निश्चल तो kuch गुस्से से तमतमाए हुए। यहां चेहरे ही चेहरे हैं। जिंदगी kuch जाने कितने रंग अपनी safed -काली लाइनों में समेटे ये चेहरे हमारे आस-पास ke ही हैं। उसी भीड़ का हिस्सा जिसमें हम-आप भी एक शिनाkhaत भर हैं। एक चित्रकार ke तौर पर डॉ. अजय जैतली ने इन चेहरों को पढऩे से बड़ा जो काम किया है वह है इन चेहरों ke पीछे छिपे चेहरों की तलाश यानी 'बियांड faces । इलाहाबाद विश्वविद्‌यालय ke दृश्य कला विभाग ke अध्यक्ष और चित्रकार डॉ. अजय जैतली की तीन दिवसीय प्रदर्शनी 'बियांड पᆬेसेस' मंगलवार से निराला सभागार में शुरू हुई। इसे देखने वᆬुछ नामचीन, kuch विषय विशेषज्ञ तो वᆬुछ कला जिज्ञासु भी पहुंचे। चित्रों को देखकर उनका अपना अंतस भले ही अलग-अलग ढंग से भीगा हो लेकिन कला की एक ताजी बयार शायद सभी को छू कर निकल गई। चारकोल और पेस्टल कलर की आड़ी-तिरछी लाइनों वᆬे बीच से झांकते लाल, नीले, हरे और गहरे बैंगनी 'चेहरे' शायद किसी और ही लोक की रचना करते दिखते हैं जबकि ये चेहरे हैं हमारे आस-पास ke ही। डॉ. अजय की पहचान की शायद वजह भी यही है कि आम सजेタट को भी बेहद खास अंदाज में पेंट करते हैं। पूरी तरह से अलहदा। उद्‌घाटन ke बाद साहित्यकार-पत्रकार प्रदीप सौरभ भी डॉ. अजय वᆬे चित्रों पर वᆬुछ ऐसी ही टिप्पणी करते हैं,' अजय ने इन चित्रों ke लिए पेस्टल और कोयले का इस्तेमाल किया है। इसमें टूल्स, ब्रश नहीं बल्कि उंगलियां बनती हैं-यानी सब kuch डायरेタट दिल से।' खुद डॉ.अजय भी अपने चेहरों ke बारे में बताते हैं 'मैं हर चेहरे की जिंदगी की लड़ाई में शामिल हुआ।

Wednesday 2 December, 2009

इसरार भाई उर्फ़ 24x7


इलाहाबाद में नवाब युसूफ रोड पर एक शॉप है, सरस्वती आटो सर्विस । कल दोपहर में समय मिला तो सोचा गाड़ी साफ करा लूँ। शॉप पर भीड़ काफी थी। मुझे लगा कम समय में मेरा काम नही हो पायेगा लेकिन तभी एक आवाज ने मेरा ध्यान खीचा ......ऐ बब्लू जा साहब की गाड़ी साफ कर पहले। ठीक से धोना। पोलिश भी लगा देना। मुझे थोड़ी राहत हुई ... चलो अब समय से गाड़ी साफ हो जाएगी। कुछ मिनट में ही बातचीत से पता चल गया कि मुझ पर अतिरिक्त मेहरबानी करने वाले सज्जन दरअसल इसरार भाई है। वही इस सर्विस सेण्टर के मालिक भी है। मुझ से नही रहा गया तो मैंने पूछ ही लिया...क्यो इसरार भाई ये सरस्वती सर्विस सेंटर का क्या चक्कर है....इसरार के लिए मेरा सवाल चौकाने वाला नही था, मुझ से पहले भी ये सवाल उनसे कई लोग पूछ चुके होंगे। इसरार बोले भाई साहब मेरे लोग भी नाराज़ होते है कि सरस्वती के नाम दुकान क्यो चला हो। मै सबसे यही कहता हूँ कि सरस्वती माने ज्ञान और ज्ञान माने विद्या। मै नही मानता भेद-भाव। देखिये, सबका मालिक एक है। दिन भर काम करता हूँ तो शाम को दाल-रोटी का इंतजाम हो पाता है। रोटी अल्ला कि मेहरबानी से आ रही है या सरस्वती की कृपा से इससे क्या फर्क पड़ता है। मै तो आप सबकी सेवा में 24x7 लगा हुआ हूँ। ऊपर वाला भी सेवा में मेवा की सीख देता है........... इसरार भाई जाने कब तक और न जाने क्या क्या बोलते रहे लेकिन मेरे जेहन में उनकी बात अब भी गूंज रही है.... मै नही मानता भेद-भाव। देखिये, सबका मालिक एक है। दिन भर काम करता हूँ तो शाम को दाल-रोटी का इंतजाम हो पाता है। रोटी अल्ला कि मेहरबानी से आ रही है या सरस्वती की कृपा से इससे क्या फर्क पड़ता है...............................

Tuesday 1 December, 2009

हेलमेट पहनें, सुरछित रहें




शहर की बदनाम गली का नाम है मीरगंज। आम तौर पर इस मोहल्ले का नाम लोग दबी जुबान में ही लेते है। कुछ शरीफ लोग बहाने से भी इस मोहल्ले में झाँकने की कोशिश करते है लेकिन हमारे छायाकार साथियों के लिए इस इलाके में जाने का मौका कारू के खजाने से कम नही है। चाहे वह कोल्कता का सोनागाछी हो या फ़िर मुम्बई की फाकलैंड रोड। यहाँ की तस्वीरें छाप पाने वाला किस्मत वाला छायाकार माना जाता है। सिल्वर स्क्रीन के सच से बिल्कुल अलग। न पारो की तरह और न ही उमराव जान की तरह। यहाँ न महल से दिखने वाले कोठे है और न ही पान चबाती बाई। यहाँ तो हर किसी को दो जून की रोटी के लिए भी जाने कितने बार अपने गर्म शरीर पर वासना की रोटियां सिकवानी पड़ती है। जानवरों के दरबे जैसी जगह पर उम्र बितानी पड़ती है। आज विश्व एड्स दिवस पर एक संस्था के प्रतिनिधि का फ़ोन आया कि वह मीरगंज में हेलमेट बाँटना चाहते है। साथी अनुराग चौके कि मीरगंज में भला हेलमेट का क्या काम।खैर कुरेदा तो पता चला कि वह दरअसल कंडोम को हेलमेट कह रहे है। उन्हें कंडोम कहने में शर्म आ रही थी इसलिए वो कोड में बोल रहे थे। ये मौका भला कोई क्यो छोड़ना चाहेगा इसलिए इस शोर्ट नोटिस पर ही संस्था के तीन प्रतिनिधियों को कवर करने के लिए दो दर्जन छायाकार मीरगंज पहुँच गए। संस्था के लोगो ने कंडोम काम पैक निकाल लिया। उन्हें संकोच भी हो रहा था। एक ने धीरे से एक मीरगंज वाली को बताने कि कोशिश की कि कंडोम कैसे लगाया जाता है। फ़िर क्या था बात उसके दिल को लग गयी। बोली .... तुम क्या बताओगे बाबु , जाओ अपना काम करो हमें पता है, कैसे लगाया जाता है। चले आए फोटो खिचवाने ... हमारी भी कुछ इज्ज़त है... कमरे में तो रोज़ नंगे होते है अब सड़क पर भी नंगा करोगे क्या...........ढेर सारी औपचारिकता कुछ मिनटों में ख़त्म हो गया। कैमरे बैग में चले गए। कुछ चटपटी तस्वीरें फ़िर नही मिल सकी । मीरगंज फ़िर आबाद हो गया बिना हेलमेट के।

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खुद को समझने की कोशिश लंबे समय से कर रहा हूं। जितना जानता हूं उतने की बात करूं तो स्कूल जाने के दौरान ही शब्दों को लय देने का फितूर साथ हो चला। बाद में किसी दौर में पत्रकारिता का जुनून सवार हुआ तो परिवार की भौंहे तन गईं फिर भी १५ साल से अपने इस पसंदीदा प्रोफेशन में बना (और बचा हुआ) हूं, यही बहुत है। अच्छे और ईमानदार लोग पसंद हैं। वैसा ही रहने की कोशिश भी करता हूं। ऐसा बना रहे, यही कामना है।